हिंदू कैलेंडर के अनुसार, दिवाली या दीपावली कार्तिक के महीने में 15 वें दिन आती है और इस साल रोशनी का त्योहार भारत में 24 अक्टूबर को मनाया जाएगा। जबकि दीया, परियों की रोशनी, दीये, पटाखे और रंगोली दीपावली पर आम दर्शनीय स्थल हैं। देप्पवाली का ये त्योहार देश के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न तरीकों से मनाया जाता है।
उत्तर भारत में हिंदुओं के लिए, दिवाली 14 साल के वनवास के बाद पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ राम की अयोध्या वापसी का प्रतीक है। जब वे लौटे, तो राम का स्वागत दीयों और आतिशबाजी के साथ किया गया था, जो पूरे राज्य में रोशन थे क्योंकि यह कार्तिक के महीने में एक अमावस्या का दिन था और चारों ओर अंधेरा था।
इसलिए, दीया की रोशनी बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है जब लोग दिवाली के अवसर पर एकजुट होते हैं और चारों ओर उत्सव होते हैं। उत्तर प्रदेश, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, बिहार और आसपास के इलाकों में आज भी दीया और आतिशबाजी की परंपरा जारी है, जबकि हिमाचल प्रदेश, दिल्ली और पंजाब में लोग दिवाली की रात को जुआ खेलते हैं क्योंकि इसे शुभ माना जाता है।
सतयुग की कथा – सर्वप्रथम दीपावली का ये त्यौहार सतयुग में ही मनाया गया। जब देवता और दानवों ने मिलकर समुद्र मंथन किया तो इस महा अभियान से ही ऐरावत, चंद्रमा, उच्चैश्रवा, परिजात, वारुणी, रंभा आदि 14 रत्नों के साथ हलाहल विष भी निकला और अमृत घट लिए धन्वंतरि भी प्रकट हुए। इसी से तो स्वास्थ्य के आदिदेव धन्वंतरि की जयंती से दीपोत्सव का महापर्व आरंभ होता है। कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी अर्थात धनतेरस को इसी महामंथन से देवी महालक्ष्मी जन्मीं और सारे देवताओं द्वारा उनके स्वागत में प्रथम दीपावली मनाई गई।
त्रेतायुग की कथा – अब बात करें त्रेतायुग की, तो जैसा कि त्रेतायुग, भगवान श्रीराम के नाम से अधिक पहचाना जाता है। महाबलशाली राक्षस रावण को पराजित कर 14 वर्ष वनवास में बिताकर राम के अयोध्या आगमन पर सारी नगरी दीपमालिकाओं से सजाई गई और तब से यह पर्व अंधकार पर प्रकाश की विजय का प्रतीक दीप-पर्व बन गया।
द्वापर युग की कथा (प्रथम) – अब चलते है द्वापर युग की तरफ जो कि प्रभु श्रीकृष्ण का लीलायुग रहा और दीपावली में दो महत्वपूर्ण आयाम जुड़ गए। पहली घटना कृष्ण के बचपन की है। इंद्र पूजा का विरोध कर गोवर्धन पूजा का क्रांतिकारी निर्णय क्रियान्वित कर श्रीकृष्ण ने स्थानीय प्राकृतिक संपदा के प्रति सामाजिक चेतना का शंखनाद किया और गोवर्धन पूजा के रूप में अन्नकूट की परंपरा बनी। कूट का अर्थ है पहाड़, अन्नकूट अर्थात भोज्य पदार्थों का पहाड़ जैसा ढेर अर्थात उनकी प्रचुरता से उपलब्धता। वैसे भी कृष्ण-बलराम कृषि के देवता हैं। उनकी चलाई गई अन्नकूट परंपरा आज भी दीपावली उत्सव का अंग है। यह पर्व प्राय: दीपावली के दूसरे दिन प्रतिपदा को मनाया जाता है।
द्वापर युग की कथा (द्वितीय) – वहीँ द्वापर युग में दूसरी घटना श्री कृष्ण के विवाहोपरांत की है। नरकासुर नामक राक्षस का वध एवं अपनी प्रिया सत्यभामा के लिए पारिजात वृक्ष लाने की घटना दीपोत्सव के एक दिन पूर्व अर्थात रूप चतुर्दशी से जुड़ी है। इसी से इसे नरक चतुर्दशी भी कहा जाता है। अमावस्या के तीसरे दिन भाईदूज को श्रीकृष्ण ने अपनी बहिन द्रौपदी के आमंत्रण पर भोजन करना स्वीकार किया और बहन ने भाई से पूछा- क्या बनाऊं? क्या जीमोगे? तो जानते हो, कृष्ण ने मुस्कराकर कहा- बहन कल ही अन्नकूट में ढेरों पकवान खा-खाकर पेट भारी हो चला है इसलिए आज तो मैं खाऊंगा केवल खिचड़ी ही खाऊंगा, साथ ही ये संदेश भी दिया कि- तृप्ति भोजन से नहीं, भावों से होती है और प्रेम पकवान से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
कलियुग की कथा – अब जानते है वर्तमानयुग यानि कि कलियुग की कथा के बारे में तो कलियुग दीपावली को स्वामी रामतीर्थ और स्वामी दयानंद के निर्वाण के साथ भी जोड़ता है। भारतीय ज्ञान और मनीषा के दैदीप्यमान अमरदीपों के रूप में स्मरण कर इनके पूर्व त्रिशलानंदन महावीर ने भी तो इसी पर्व को चुना था अपनी आत्मज्योति के परम ज्योति से महामिलन के लिए। जिनकी दिव्य आभा आज भी प्रेम, अहिंसा और संयम के अद्भुत प्रतिमान के रूप में पुरे संसार को आलोकित किए है ।
दीपोत्सव अर्थात दीपवाली का वर्णन प्राचीन ग्रंथों में मिलता है, और दीपावली से जुड़े कई सारे ऐसे तथ्य हैं जो इतिहास के पन्नों में अपना विशेष स्थान हासिल कर चुके हैं। अत: इस पर्व का अपना ऐतिहासिक महत्व भी है। और धर्म के दृष्टि से भी दीपावली के त्योहार का ऐतिहासिक महत्व है।
एक बार भगवान श्री विष्णु ने तीन पग में तीनों लोकों को नाप कर तथा राजा बलि की दानशीलता से प्रभावित होकर उन्हें पाताल लोक दे दिया तथा आश्वासन दिया कि उनकी याद में भू लोकवासी प्रत्येक वर्ष दीपावली मनाएंगे। वहीँ त्रेतायुग में भगवान राम जब रावण को हराकर अयोध्या लौटे तब उनके आगमन पर दीप जलाकर उनके स्वागत में खुशियां मनाई गईं। और भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर का वध कार्तिक चतुर्दशी को किया था, जो कि दीपावली के एक दिन पहले की तिथि थी, इसी खुशी में अगले दिन अमावस्या को गोकुलवासियों ने दीप जलाकर खुशियां मनाई थीं।
एक तरफ जहाँ जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने भी दीपावली के दिन ही बिहार के पावापुरी में अपना शरीर त्याग दिया था। और दूसरी तरफ दीपावली के ही दिन अमृतसर के स्वर्ण मंदिर का निर्माण भी शुरू हुआ था।
साथ ही देवी महाकाली ने जब राक्षसों का वध करने के लिए रौद्र रूप धारण किया था और राक्षसों के वध के बाद भी उनका क्रोध शांत नहीं हुआ तो भोलेनाथ स्वयं उनके चरणों में लेट गए और शिव जी के शरीर स्पर्श मात्र से ही देवी महाकाली का क्रोध समाप्त हो गया। अत: इसी की याद में उनके शांत रूप लक्ष्मी की पूजा की शुरुआत हुई। इसीलिए दीपावली की रात महाकाली के रौद्ररूप काली की पूजा का भी विधान है।
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